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जहां जिस साल में एक तरफ सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म हुआ, बंबई स्टॉक exchange की स्थापना हुई वही इसी साल झारखण्ड के रांची में 15 नवम्बर 1875 को बिरसा मुंडा का जन्म हुआ.

झारखंड के इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसा नाम है, जिसका जिक्र करना ही काफी है इसका नाम सुनते ही वहां के लोगों की आंखों में चमक की रोशनी देखने को मिल जाती हैं। वहां के युवा उन्हें अपना आइडियल मानते हैं| बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों का डंटकर सामना किया और लगान वापसी के लिये उन्होने अंग्रेजों को मजबूर किया और अपनी मांगे पूरी करने के लिए बेबस कर दिया।

बिरसा ने जिस समय जन्म लिया तो उस समय अंग्रेजों का अत्याचार चरम सीमा पर था। आदिवासियों की कृषि प्रणाली में लगातार बदलाव किये जा रहे थे,  उस समय वहाँ रैय्यतवाङी प्रथा स्थापित की गई थी . किसान को यह विकल्प दिया जाता था कि वह चाहे तो निर्धारित लगान देकर खेती करे अथवा खेती का कार्य छोङ दे। यह प्रथा किसानों के लिये हानिकारक सिद्ध हुई, क्योंकि प्रथम तो भू-राजस्व की मात्रा अत्यधिक थी और दूसरी, किसी वर्ष फसल खराब हो जाने पर लगान में छूट की संभावना न थी। जिससे किसान लगान नहीं दे पा रहें थे, और उनकी भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में बटती जा रही थी.

जिस कारण आदिवासी किसानों के भूखे मरने की स्थिति बनती जा रही थी। आदिवासियों की जमीनें उनसे छीनी जा रही थीं। जबरदस्ती लोगों के धर्म परिवर्तन कराये जा रहे थे। अब बिरसा कुछ बड़े हो गए थे, जब उन्होंने यह सब होते देखा और लोगों की परेशानियों को महसूस किया, तब उनके अन्दर भी अंग्रेजों के प्रति विरोध का भाव उत्पन्न हुआ . उस समय क्रोध की ज्वाला उनकी आंखों में देखी जा सकती थी। लेकिन उम्र में  छोटे होने के कारण वह चुप थे क्योंकि वह ज्यादा कुछ कर नहीं कर सकते थे। वह अपने  गुस्से को शांत करके सही समय का इंतजार कर रहे थे कि कब वह बड़े हो जाये और अंग्रजों को उनकी नानी याद दिलाये।

उन्हें स्कूल में अच्छी पढाई करने के लिए अपना धर्म बदलकर  क्रिस्टियन बनना पड़ा था और ईसाई धर्म को अपनाना पड़ा था। लेकिन  बाद में उन्होंने फिर से  हिन्दू धर्म में वापसी की और हिन्दू ग्रंथों को पढ़कर उनसे हिन्दू ज्ञान को प्राप्त किया और अपने हिन्दू आदिवासी लोगों को हिन्दू धर्म के सिद्धांतो को समझाया, उन्होंने लोगो को बताया कि हमें गाय की पूजा करनी चाहिए  और गौ-हत्या का विरोध करने की सलाह दी।

उन्होंने अंग्रेजों की दमन नीति का विरोध करने के लिये अपने मित्र भाइयों को जागरुक किया, उन्होंने सभी को एक नारा दिया  ‘रानी का शासन खत्म करो अपना साम्राज्य स्थापित करो ‘ धीरे-धीरे आदिवासियों के हितों के लिये उनका विद्रोह इतना उग्र हो गया था कि उन्हें लोग ‘धरती अवा’ यानी धरती पुत्र कहकर बुलाने लगे। आज भी आदिवासी जनता उनको बिरसा को भगवान बिरसा मुंडा के नाम से पूजती है।

बिरसा अंग्रेजों के अत्याचार देख रहे थे कुछ समय बाद अंग्रेजों ने आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा करने लगे क्योंकि आदिवासी उनको लगान नही दे पा रहे थे  यह सब उनसे देखा न गया और उन्होंने खुलेआम बिना किसी डर के अंग्रेजों के साथ विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी, उन्होंने कह दिया कि वह किसी भी अंग्रेजों के नियमों का पालन नहीं करेंगे और उन्होंने अंग्रेजों को ललकारते हुये कहा हमारी जमीनें छिनना इतना आसान नहीं है।

ये जमीने सदियों से हमारी हैं इन पर केवल हमारा अधिकार है। ये तुम लोगों के लिए अच्छा होगा कि तुम लोग सीधे तरीके से अपने देश लौट जाओ, वरना हम तुम्हारा क्या करेंगें इस बात का तूम लोगों को अंदाजा भी नहीं है हम तुम्हारी लाशों के ढ़ेर लगा देंगे, लेकिन शासन ने यह सब अनसुना कर दिया और  बिरसा को उनके साथियों के साथ गिरफ्तारी कर लिया गया . साल 1895 जब cinema के इतिहास में पहली फिल्म बनने का जश्न चल रहा था, वही इसी साल की 9 august 1895 को पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनके साथियों ने उनको रिहा करा लिया।

बिरसा की गिरफ्तारी के कारण लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की आग बढ़ चुकी थी। बिरसा जब जेल से निकले तो उन्होंने  इस आग को ठंडा नहीं होने दिया, उन्होंने इस संघर्ष में सक्रिय लोगों से सहयोग माँगा और अनेको छोटे-छोटे संगठन बनाये। डोम्बारी पहाड़ी जिसे झारखंड का जलियांवाला बाग भी कहते हैं, वहाँ पर मुंडाओं की एक बैठक हुई, जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की रणनीति बनाई गयी।

वहां अलग अलग तरह के लोग थे जिनमे कुछ लोग तो चाहते थे कि सारी लड़ाई शांति से हो पर ज़्यादातर लोगों का मानना था कि ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए अर्थात् विद्रोह जमकर करना चाहिए, उनका कहना था चुप बैठकर या शांति से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा अब जमाना बदल चुका था, इसलिए उन्हें अपने विद्रोह को संपन्न करने के लिये हथियारों का सहारा भी लेना पड़ेगा। बिरसा मुंडा ने इस पर मुहर लगा दी और यहीं से हथियार विद्रोह शुरू हो गया.

जब यह खबर अंग्रेजो को लगी कि आदिवासियों ने  उग्र तैयारीयां कर ली है तो  उन्होंने अपनी दमन नीति से उनको बहुत दबाने की कोशिश की। इस आंदोलन से जुड़े केंद्रों पर छापे मारे और जमकर लोगों को  गिरफ्तार भी किया। निर्दोष लोगों को पिटना भी पड़ा। आम आदिवासियों जनता के साथ बहुत अत्याचार हुआ यहाँ तक कि आदिवासियों के घर-सम्पत्ति तक अंग्रेज सैनिक लूटकर ले गये। यह सब  देखकर आंदोलनकारियों से रहा नहीं गया और वह भी भड़क पड़े। उन्होंने भी अपनी कार्रवाई शुरू कर दी और अंग्रेजों के कार्यालयों पर हमला बोल दिया और कई जगह तो आग भी लगा दी। इसमें कई  अंग्रेज अफसरों ने अपनी जान गवा दी।

बिरसा के नेतृत्व में उनके साथियों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ धाबा बोल दिया , जिसे गोरिल्ला युद्ध का नाम दिया गया. गोरिल्ला युद्ध में य़ह अग्रेजी सेना को उनके प्रतिकूल क्षेत्र में बहका कर ले आने अथवा छुपकर वार करने के तरीके का उपयोग करते थे। इसी नीति का सबसे पहले शिवाजी ने 1645 में मुगलों और अन्य शक्तियों के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध आरंभ किया, और मराठा साम्राज्य की स्थापना की.

 

बिरसा के इस युद्ध ने अंग्रेजों को तोड़ कर रख दिया। अंग्रेजों को समझ नहीं आ रहा था कि वे बिरसा मुंडा से इसका बदला कैसे ले। अंत में अंग्रजों ने फैसला लिया और अपने आसपास के जिलों से एक सेना बुलायी और इस आंदोलन को ख़त्म करवाने का मन बना लिया।

इस युद्ध में एक तरफ से धनुषबाण , भाले-बर्छों और  कुल्हाड़ी से लड़ाई लड़ी गयी तो वही दूसरी ओर सेना की बंदूकें किसी भी कीमत पर रुकने को तैयार नहीं थी वह इस आंदोलन को कुचल कर रख देना चाहती थी। आंदोलनकारी को डोम्बारी पहाड़ियों पर अंग्रेजो ने घेर लिया। सेना ने विद्रोहियों को हथियार फेक देने को कहा, इसके जवाब में विद्राहियों ने नारेबाजी करना शुरू कर दी  – ‘गोरो, तुम्हे अपने देश वापस जाना होगा। यह सुनकर अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियां चलाना शुरू कर दिया और हजारों आंदोलनकारियों को बन्दूक की गोलियों से भून कर रख दिया, इसके बावजूद बिरसा मुंडा नहीं पकड़े गये. और जब से डोम्बारी पहाड़ी वहाँ की जलियांवाला बाग कहलाने लगी.

 

बिरसा अपने साथियों के साथ झारखंड के जाम्क्रोपी के जंगलों में भाग गये। अंग्रेज इस जंगल के रास्तों से अंजान थे, बिरसा का यहाँ से पकड़ा जाना नामुमकिन था। बिरसा ने इस जंगल को ही अपना घर बना लिया। वह छिपकर गांव-गांव जाते थे और अपने आन्दोलन को इस तरह उन्होंने जारी रखा, सब बिलकुल ठीक चल रहा था, तभी उनके कुछ लोगों ने अंग्रेजों की बातों में आकर सरेंडर कर दिया।

 

यह बिरसा मुंडा के लिये और देश के लिये अच्छी खबर नहीं थी, लेकिन अब  वह पहले से भी ज्यादा सावधान हो गये। उन्हें डर था कि जिन्होंने सरेंडर किया है वे अंग्रेजों के सामने सारे राज न खोल दे, और वैसा ही हुआ जिस कारण अंग्रेजों ने तेजी से जंगल को ख़त्म करना शुरु कर दिया, जिस कारण बिरसा मुंडा ने अपनी जगह बदल दी पर फिर भी एक दिन बिरसा को जाम्क्रोपी के जंगल से सोते हुए गिरफ्तार कर लिया और उनके सभी साथी भी गिरफ्तार कर लिये गये।

 

जेल में ही बिरसा ने अपनी बची खुची अंतिम सांसे ली और 9 जून 1900, को रांची में उनकी मृत्यु हुई। बिरसा मुंडा केवल 25 साल जिये पर उन्ही वर्षों में उन्होंने बहुत कुछ कर दिखाया और देश के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया।

 

बिरसा की कहानी बहुत कम लोगों को पता, जिसको लोगों तक RRR 2 की टीम पहुचा सकती है. आपका इस बारे मे क्या खयाल है, हमें comments में Jarur बताये. हम फिर मिलेंगे एक नई post के साथ, तब तक खुश रहें और सैफ रहें. Bye

Manisha Jain

 

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