Gadar 2

क्यों छोडा गया 93,000 Pakistani को?

 

2 अगस्त, 1972 को – 13 दिन के भारत-पाकिस्तान युद्ध के 16 दिसंबर, 1971 को खत्म होने के आठ महीने बाद-दोनों देशों ने एक Shimla Agreement पर sign किए, जिसके तहत भारत सभी 93,000 पाकिस्तानी prisoners of war (POW) यानी पाकिस्तानी कैदीयों को रिहा करने के लिए agree हुआ और ये एक बहुत ही controversial decision साबित हुआ, भारत में कई लोगों ने सवाल किया कि, प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के साथ सौदेबाजी करने और भारत की शर्तों पर कश्मीर समस्या को सुलझाने का सुनहरा मौका क्यों गवा दिया? PM Indra Gandhi को किसने prisoners of war को रिहा करने के लिए motivate किया?। ऐसी कौन सी खिचडी पर्दे के पीछे पकाई जा रही है?, तरह तरह के सवाल Mrs. Gandhi से किए जा रहे थे।

 

हालांकी, Mrs. गांधी भारत के सामने मौजूद और critical issues पर विचार कर रही थीं।

War में लगी cost से निपटने के अलावा, भारत को उन 10 मिलियन refugees की देखभाल का भी financial burden उठाना पड़ा, जो पूर्वी पाकिस्तान से भारत आए थे। क्योंकि वे पाकिस्तानी सेना के भयानक अत्याचारों से बचकर आए थे, जिन्हें 1971 का Bangladesh Genocide के रूप में जाना जाता है।  

 

दूसरी बड़ी चुनौती, जो कि diplomatically काफी complex problem थी क्योंकि इसमें National security और foreign policy issues के मुद्दों को शामिल किया गया था। इसके अलावा नाजुक तरिके से handle करने की जरूरत थी, क्योंकी Prisoners of wars के रूप में लिए गए 93,000 पाकिस्तानी soldiers की देखभाल करने की un-budgeted जिम्मेदारी थी। भारत पाकिस्तानी soldiers को comfort condition पर रखना चाहता था, जो Geneva कन्वेंशन में listed provisions से ऊपर और ऊपर था और उस समय इंदिरा गांधी की सबसे बडी चिंता ये थी कि, बांग्लादेशी नेता शेख मुजीबुर रहमान को जीवित और अच्छी तरह से अपने देश वापस कैसे लाया जाए। Mrs. Gandhi उसकी जान बचाने के लिए कोई भी किमत चुकाने को तैयार थी। PM Indra Gandhi इस fact से अच्छी तरह वाकिफ थी, कि Rahman पर पाकिस्तानी military court ने मुकदमा चलाया था और देशद्रोह के आरोप में फांसी की सजा बांग्लादेश के नेता को सौंपी गई थी और गांधी के लिए यह एक nighmare होगा, अगर पाकिस्तान की Army मौत की सजा का पालन करती है, तो Rahman के मरने के बाद बांग्लादेश एक अनाथ राज्य बनकर रह जाएगा और भारत, जिसने इसके साथ बांग्लादेश liberation struggle का support दिल और आत्मा से किया, तो India के लिए Rahman का मरना एक बहुत बडा disaster बन जाएगा, उनका एक सपना टूट जाएगा।  

 

इसलिए ये भारत के favor में था कि रहमान की जान बचाने के लिए, वो कोई कसर ना छोडे।

सिर्फ भारत के लिए नही बल्कि रहमान के लिए, उसके परिवार के लिए, और बांग्लादेश के लिए, भारत किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार था।

 

इसी बीच, अपने कट्टर दुश्मन भारत के हाथों पाकिस्तान की हार को उनके Nationhood के लिए intolerable insult की तरह देखा जा रहा था और मामले को बदतर बनाने के लिए, पाकिस्तान अपनी आधी territory बांग्लादेश को खो चुकी थी, जिससे मोहम्मद अली जिन्ना की Two Nations theory बिखर गई। इस तबाही से तिलमिलाए Military dictator जनरल याहया खान ने एक flash decision लिया, जिसमें उसने national disaster की पूरी जिम्मेदारी ली और फिर resign दे दिया। 

उन्होंने जुल्फिकार अली भुट्टो से, जो उस वक्त UN security council meetings में भाग लेने के लिए न्यूयॉर्क में थे, अपने देश वापस लौटने के लिए कहा। भुट्टों को जनरल याहया खान ने ये भी inform किया कि, उन्होंने अपने office से resign कर दिया था और उन्हें  पाकिस्तान के chief Martial law administrator के रूप में apoint किया गया था।

 

भुट्टों के वापस लौटने की अंदरूनी जानकारी हासिल करने के बाद, प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने साउथ ब्लॉक में अपने office में नई दिल्ली में war कैबिनेट की एक emergency meeting बुलाई।  

 

वो urgently, एक ऐसे contact को secure करना चाहती थी, जो भुट्टों के Heathrow में Arrival के लिए present हो सके। ताकि वो only जानकारी जिसकी भारत को तलाश थी, वो जान सके, कि पाकिस्तान के मुजीबुर रहमान को मौत की सजा दिए जाने के बारे में भुट्टों ने क्या सोचा है?‌। Indra Gandhi की बुलाई इस meeting में head of policy planning ministry of external affairs दुर्गा प्रसाद धर;  RAW के chief राम नाथ काव;  P N  हक्सर, प्रधानमंत्री के principle secretary और Foreign secretary टी.एन. कौल। 1971 में पाकिस्तान के surrender के बाद गांधी की सबसे बड़ी चिंता मुजीबुर रहमान की safety थी।  पाकिस्तानी कैदियों की रिहाई बांग्लादेशी नेता की safely वापसी के लिए, जुल्फिकार अली भुट्टो और ISI की कीमत थी।

 

Mrs. गांधी के instructions के तहत मुजफ्फर हुसैन, east पाकिस्तान सरकार के former chief secretary, 16 दिसंबर 1971 तक ढाका में तैनात highest rank civil servant, जो बाद में भारत में कैदी बन गए थे, को VIP guest के रूप में Durga prasad dhar के residence में रखा गया। Hussain की पत्नी, लैला, जो 3 दिसंबर, 1971 को युद्ध छिड़ने से पहले लंदन चली गई थीं, और फिर घर नहीं लौट सकी, वहीं फंसी रह गई थी। दोनों पति-पत्नी दिल्ली और लंदन में, diplomatic channels से एक-दूसरे से communicate कर रहे थे।

प्रधानमंत्री इस बात से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थी कि लैला और भुट्टो लंबे समय से close friends रहे हैं और आगे भी रहेंगे। भुट्टो के लंदन पहुंचने के ठीक दो दिन पहले PM Indra Gandhi के instructions पर लैला को ये inform किया गया कि, भुट्टो को पाकिस्तान का chief Martial Law Administrative (CMLA) appoint किया गया है और वो Washington से इस्लामाबाद जा रहा हैं।  भुट्टो की फ्लाइट refuelling के लिए Heathrow Airport पर रुकेगी और लैला को ये सब इसलिए inform किया जा रहा था, ताकी किसी तरह वो भुट्टो से मिलने के लिए राजी हो जाए। पुरानी दोस्ती के नाते laila ही भुट्टो से बिना शक के मिल सकती थी और उससे पुछ सकती थी कि, CMLA के नाते, वो अपनी capacity में क्या वो उसके पति को दिल्ली से छुड़ाने में मदद कर सकता हैं।

 

भारत केवल एक ही बात जानना चाहता था कि रहमान के बारे में भुट्टो क्या सोच रहा था, क्या उसे अपने देश लौटने के लिए रिहा किया जाएगा, या military court के मौत के फैसले को लागू किया जाए। लंबे समय से खोए हुए दो दोस्त, लैला और भुट्टो, Heathrow हवाई अड्डे पर VIP लाउंज में मिले। बिना किसी संदेह के, पर्दे के पीछे की मुलाकात history की बहुत महत्व की meeting साबित हुई।

 

लेकिन भुट्टो बात को समझने में काफी तेज था। जैसे ही laila ने उन्हें भुट्टो से उसके पकि hussain को भारत से छुडाने में मदद करने की बात कही, तङी भुट्टो समझ गया था कि उसकी दोस्त वास्तव में भारत सरकार की बोली बोल रही थी और तभी भुट्टो ने अपनी आंखों में चमक के साथ बातों का मोड बदल दिया और उसे एक तरफ खींचकर, लैला को फुसफुसाते हुए भारतीय प्रधान मंत्री के लिए एक बहुत ही sensitive, super secret mesaage दिया। भुट्टो ने कहा, “लैला, मुझे पता है कि तुम क्या चाहती हो।  मैं imagine कर सकता हूं कि तुम इंदिरा गांधी से एक request लेकर आई हो।  तो अब तुम जाकर उन्हें मेरा ये message देना कि जब मैं पाकिस्तन वापस जाकर office का काम संभाल लूंगा, तो मैं जल्द ही मुजीबुर रहमान को रिहा कर दूंगा। जिससे उन्हें घर लौटने की permission मिल जाएगी।  मैं इसके बदले में क्या चाहता हूं, मैं श्रीमती इंदिरा गांधी को दूसरे channel से बता दूंगा। और अब तुम जा सकती हो।”

 

गांधी खुश थी कि, भुट्टो ने एक positive message भेजा था, हालांकि यह unofficial रूप से एक back channel के माध्यम से किया गया था। इसलिए, उन्हें इस बात पर doubt था, कि क्या भुट्टो पर भरोसा किया जा सकता है।  क्या भुट्टो भारत को गुमराह करने की कोशिश कर रहे थे?  क्या वह किसी mischivious motive से झूठी उम्मीद दे रहा था?  

 

वो पाकिस्तान में हमारे diplomatic मिशन से जितनी जल्दी हो सके लैला के input की confirmation चाहती थी।  इस बीच, घंटों के भीतर, लैला की रिपोर्ट की authenticity की confirmation करते हुए इस्लामाबाद से एक रिपोर्ट वापस आई। इस point पर, गांधी ने मामलों को अपने हाथों में ले लिया, bureaucratic से political level तक इस मामले को ऊपर उठाया। अपने informants से , गांधी को पता चल गया था कि रहमान पहले लंदन में उतरेंगे और फिर वहां से ढाका या शायद दिल्ली के रास्ते उड़ान भरेंगे। भुट्टो के पास रहमान को पहले रिहा करने के अलावा कोई option नहीं।  जाहिर है, भुट्टो गांधी की decency की भावना पर भरोसा कर रहे थे, ताकि उन्हें निराश न किया जा सके।  ये clear होने लगा था कि, इंदिरा गांधी ने अपना मन बना लिया था।  अगर भुट्टो ने personally उनसे युद्धबंदियों यानी prisoners of war की रिहाई के लिए कहा, तो वो इसके लिए agree होने में hesitate नहीं करेंगी। उनकी generosity के भाव के बदले में उन्हे generosity ही दी जाएगी। 

 

भुट्टो ने रावलपिंडी में एक Military court द्वारा दी गई मौत की सजा को खारिज कर दिया और 8 जनवरी, 1972 को मुजीबुर रहमान को रिहा कर दिया। उनकी वापसी पर, मुजीब ने 10 जनवरी, 1972 को बांग्लादेश के prime minister के रूप में अपना office संभाला।  

बांग्लादेश के राष्ट्रपिता मुजीबुर रहमान के जीवन को बचाने के लिए geatefullness दिखाने के लिए , उनकी रिहाई के आठ महीने बाद, भारत ने 2 अगस्त, 1972 के शिमला Agreement के तहत सभी 93,000 पाकिस्तानी युद्धबंदियों यानी prisoners if war को रिहा करने का order दिया।  International relatians में भी कभी ऐसी decency नहीं देखी गई, जैसी prisoners of war के मुद्दे पर भारत का पाकिस्तान के साथ व्यवहार देखने को मिला था।

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