यह किस्सा है चंबल के खूंखार डकैत पंडित लोकमन उर्फ लुक्का का। पंडित लोकमन विख्यात डकैत मानसिंह दल में सेनापति की तरह काम करते थे।साल 1935 ,चंबल के एक छोटे से गाँव बीहड़ में जन्मे लोकमन का परिवार काफ़ी ग़रीब था और शुरू से ग़रीबी देखकर बड़े हुए लोकमन ने काफ़ी ज़िल्लते भी सही थी लेकिन उसके माता -पिता काफ़ी मधुर स्वभाव के थे और लोकमन की परवरिश भी वैसे हुई थी लेकिन चंबल में शुरू से ही डाकुओं का दबदबा रहा है और चंबल तो डाकुओं के आवर और डकैती के लिए ही जाना जाता है और उसी समय लोकमन ने डाकू मानसिंह के under काम करना शुरू कर दिया लेकिन काफ़ी साल काम करने के बाद एक वक़्त पर मानसिंह की सेहत बिगड़ने के बाद 1955 ,”जब महान वैज्ञानिक albert einstein का निधन हुआ था और उसी साल में लोकमन ही उस डकैत गैंग के सरदार घोषित कर दिए गए। लोकमन पेशे से डकैत जरूर थे, लेकिन भीतर से वह बेहद भावुक इंसान थे।
डकैत शब्द सुनते ही घोड़े की लगाम थामे किसी क्रूर इंसान की छवि हमारे दिमाग में बनती है। हम सबने bollywood की फिल्मों में देखा है कि जो डकैत होता है उसके पास लूट की अकूत दौलत होती है, वह खूब शराब पीता है, डांसरों से डांस करवाता है यानी फुल ऐश ओ आराम की जिंदगी जीता है। जिसकी धमक मात्र से ना केवल आम जनता बल्कि पुलिस प्रशासन के भी पांव फूल जाते थे। एक वक़्त ऐसा आया जब लोकमन ने एक ग़रीब परिवार के साथ काफ़ी बुरा behave किया ,उसके आदमी से पैसा वसूली के दौरान मार दिया गया और उसके बेचारे बिलखते बच्चो को अनाथ कर दिया और उसके बाद उस डकैत को अपने डकैती के कर्म को लेकर पश्चाताप हुई तो उसने खुद से बंदूक छोड़ने का फैसला ले लिया। हैरत की बात यह है कि बंदूक छोड़ने के बाद उसकी हालत दान में 10 रुपये देने की भी नहीं रह गई थी।पंडित लोकमन विख्यात डकैत मानसिंह दल में सेनापति की तरह काम करते थे। कई साल तक डकैती के धंधे में रहने के बाद उन्हें इनसब से विरक्ति होने लगी थी। इसी का नतीजा है कि एक शाम उन्होंने अपने गैंग के सदस्यों को अपने पास बुलाया और कहा कि अब वह डाका नहीं डालेंगे। इसपर गैंग के दूसरे सदस्यों ने कहा लोकमन से कहा कि सरदार डाका नहीं डालोगे तो खाओगे कहां से? इसपर डाकू लोकमन ने कहा कि शेर का शिकार कर हम उसकी खाल बेच लेंगे, उससे काम नहीं चलेगा तो फिर किसी के घर में पहुंचेंगे और उससे कहेंगे मुझे खाना खिला दो।
लोकमन की ओर से गैंग के सदस्यों के साथ हुई इस मीटिंग की बात चंबल के बीहड़ों में आग की तरह फैल गई। तभी इलाके के एक साधु को पता चला कि डाकू लोकमन ने बंदूक त्याग दिया है। इसपर वह डाकू लोकमन से मिलने पहुंचा। मुलाकात के दौरान साधू ने कहा कि डकैत लोकमन जी अब आपने हिंसा का रास्ता छोड़ ही चुके हैं तो एक मंदिर के निर्माण के लिए 20 हजार रुपये चंदा के रूप में दे दीजिए। साधू को लगा कि लोकमन इतने बड़े डकैत हैं तो उनके लिए 20 हजार रुपये क्या बात होगी। डाकू लोकमन ने उस साधू को चंदा में केवल 10 रुपये दे पाए। 10 रुपये देते हुए डाकू लोकमन ने कहा कि साधू बाबा इससे आप अपने लिए लंगोटी खरीद लीजिएगा। इतना ही नहीं डाकू लोकमन ने उस साधू से कहा कि भले ही मंदिर निर्माण की बात है, लेकिन वह दोबारा डकैती कर परमार्थ कमाने का मौका नहीं गंवा दूंगा
1955 से 1960 तक लोकमन का आतंक चरम पर था। पूरे चंबल में लोग लोकमन के नाम मात्र से थर्र-थर्र कांपते थे। तभी एक दिन डाकू लोकमन उसकी भिड़ंत एक रिक्शे वाले से हो गई। दअरसल, रिक्शेवाले ने डाकू लोकमन को टक्कर मार दी थी। दोनों के बीच बातचीत बढ़ी तो रिक्शे वाले ने डाकू लोकमन को एक लात मारता हुआ आगे बढ़ गया। डाकू लोकमन की मजबूरी थी कि वह रिक्शेवाले को कुछ कह नहीं सकता था, क्योंकि जैसे ही वह अपनी ताकत का प्रदर्शन करता तो लोग उसे पहचान जाते और उसे पुलिस के हवाले कर देतें। रिक्शे वाले से लात खाने की बात लोकमन के मन में घर कर गई। उसे अहसास हुआ कि वह बुरे कर्म करता है इसलिए एक रिक्शा वाला भी उसे लात मारकर चला गया और वह कुछ नहीं कर पाया। इसी घटना के बाद डाकू लोकमन धार्मिक प्रवृति के हो गए।
ना जानें कितने परिवारों की जिंदगी बर्बाद करने वाले डाकू लोकमन की व्यक्तिगत लाइफ बेहद दुखदायी रही। बड़े बेटे सतीश को कैंसर की दिक्कत होने के चलते उनकी मौत हो गई। छोटा बेटा अशोक की रोड दुर्घटना में मौत हो गई। दोनों बेटों की मौत से डाकू लुका अंदर से टूट चुका था। इसके बाद डाकू लोकमन ने 1960 में आचार्य विनोबा भावे के सामने बंदूक छोड़कर जुर्म की सजा काटने का फैसला लिया और उसे follow भी किया।
don-3 JYOTI ARORA