1934 में जब रिजर्व बैंक एक्ट बना, उस समय ब्रिटिश सरकार पहले से ही एक रुपए का नोट छाप रही थी. अगर रिजर्व बैंक को भी इसे छापने का अख्तियार दे दिया जाता तो दो किस्म के नोट बाजार में आ जाते. इस विसंगति से बचने के लिए एक रुपए के नोट की छपाई सरकार के पास ही रहने दी गई. तो क्या इससे विसंगति दूर हो गई? दरअसल इस कदम ने विसंगति को स्थाई बना दिया. इसी विसंगति ने गुजरात और महाराष्ट्र के सीमावर्ती इलाकों में एक नए संप्रदाय को जन्म दिया है. यहां से हम इस रिपोर्ट के उस हिस्से में घुस रहे हैं जहां आपका साबका कई कॉस्परेंसी थ्योरी से लैस एक दार्शनिक और राजनीतिक गुत्थी से पड़ने वाला है. थोड़ी देर के लिए दिमाग को यहां जमा लीजिए.
स्वतंत्रता आंदोलन के समय 1930 में महात्मा गांधी व इरविन के बीच हुए गोलमेज समझौते में आदिवासियों के लिए अखिल आदिवासी एक्सक्लूडेड पार्शियल एरिया का उल्लेख किया गया था। टेटिया कानजी आदिवासियों के नेता थे। उनका दावा था कि महारानी विक्टोरिया ने ही आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन का हक सौंप दिया था। ऐसे में आदिवासी जब इस देश के मालिक हैं तो कोई सरकार उनको कैसे आदेश और निर्देश दे सकती है।
तो जब हम खेड़ाअम्बा पहुंचे उस समय सूरज ढलने में बमुश्किल आधा घंटा बचा होगा. रायसिंह भाई अपने खेत में पानी लगा रहे थे. उन्होंने हमसे कहा कि वो बिना यूनिफार्म पहने अपनी बात नहीं कहना चाहते. ऐसे में हम उनके काम खत्म होने का इन्तजार करते रहे. करीब एक आधे घंटे बाद हम उनके घर
नर्मदा जिले में एक तालुका है डेडियापाडा. इसमें एक गांव पड़ता है खोड़ाअम्बा. प्रशासन की फाइलों में यह गांव शेडो जोन का हिस्सा है. शेडो जोन माने नर्मदा जिले के वो 103 पोलिंग बूथ जहां मोबाइल कनेक्टिविटी या तो पूरी तरह से नदारद है या फिर बहुत बाधित है. यहां पर पोलिंग पार्टी अपने साथ संचार के दूसरे इंतजाम रखती हैं ताकि विपरीत परिथितियों में सुरक्षा बलों को मदद के लिए बुलाया जा सके.
2012 के विधानसभा चुनाव में डेडियापाडा सीट से बीजेपी के मोतीलाल वसावा चुनाव जीतकर आए थे. खेड़ाअम्बा उनका पैतृक गांव है. गांव में घुसते ही आपको इस बात का अहसास हो जाता है. पूरा गांव बीजेपी के झंडों से पटा पड़ा है. मोतीलाल वसावा इस चुनाव में फिर से बीजेपी की टिकट पर किस्मत अाज़मा रहे हैं. सतपुड़ा की पहाड़ियों पर बसे इस छोटे से गांव का कोई आदमी अगर जनता का प्रतिनिधि बनकर विधानसभा में पहुंचता है तो यह लोकतंत्र में आस्था मजबूत करने वाला तथ्य होना चाहिए. इसी गांव के एक कोने में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का एक काउंटर नैरेटिव भी है. इस चुनावी माहौल में इसे भी दर्ज किया जाना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र एकालाप पर नहीं चलता.
पर थे जहां आस-पड़ोस के 15-20 दूसरे लोग भी जुटे हुए थे. वो घर के भीतर गए. धोती और गुलाबी रंग का कुर्ता पहनकर बाहर निकले. कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा, “यही हम आदिवासियों की यूनिफॉर्म है. धोती और कुर्ता.” अन्दर से वो अपने साथ दो थैलियां भी लाए थे जिनमें कई दस्तावेज़ थे. उन्होंने सबसे पहले हरी थैली में से एक रुपए का लेमिनेटेड नोट निकाला और कहना शुरू किया-
रायसिंह चौथी कक्षा तक ही पढ़े हुए हैं. लेकिन फिलहाल वो एक कुशल वकील की भूमिका में आ चुके थे. उन्होंने समझाने के अंदाज में कहना शुरू किया-
“आप गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया और सेंट्रल गवर्नमेंट में फर्क समझना चाहते हैं? इस कागज से आपको यह समझ में आएगा.”
आपने एक का नोट गौर से देखा है. सिर्फ यह ऐसा नोट है जिसमें सबसे ऊपर भारत सरकार लिखा हुआ है. बाकी सभी नोटों पर सेन्ट्रल गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया लिखा हुआ है. यह एक रुपए का नोट ही असल करंसी है. इस पर कहीं भी रिजर्व बैंक की गारंटी नहीं लिखी हुई है. रिजर्व बैंक जो दूसरे नोट पर गारंटी लिखता है कि मैं धारक को इतने रुपए देने का वचन देता हूं. वो कहीं से इस गारंटी को हासिल करता है तभी तो हमें देता है. ये जो भारत की केंद्र सरकार है, यह इस नोट की तरह करार पर चलने वाली सरकार है. इसलिए हम इंडियन सेन्ट्रल गवर्नमेंट को नहीं मानते. हम गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया को मानते हैं.”
उन्होंने 2004 के अखबार की कतरन निकाली जिसपर अटल बिहारी वाजपेयी का बयान दर्ज था. यह 2004 लोकसभा चुनाव के बाद की खबर थी. अटल बिहारी वाजपेयी उत्तराखंड के किसी सरकारी स्कूल के दौरे पर थे. उन्होंने स्कूल को 100 रुपए का अनुदान देते हुए कहा था कि उनके पास ज्यादा पैसे नहीं है और हाल ही में उनकी नौकरी छूट गई है. रायसिंह भाई अखबार की कतरन को समेटकर पन्नी में रख देते हैं और बोलना शुरू करते हैं-
“केंद्र सरकार का प्रधानमंत्री खुद कह रहा कि उसकी नौकरी छूट गई है. माने वो नौकर था. आज मोदी भी यही कहता है कि वो प्रधानसेवक है. माने यह जितने भी लोग हैं, चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री तक ये सब भारत सरकार की नौकरी कर रहे हैं. मोदी आज देश के प्रधानमंत्री है. सारा माल-खजाना उनकी पहुंच में हैं. वो चाहे तो पूरा माल हड़प सकते हैं लेकिन वो ऐसा नहीं करते. उन्हें भी दूसरे सरकारी कर्मचारियों की तरह हर महीने तनख्वाह मिलती है. इसका क्या मतलब हुआ? इसका मतलब हुआ कि वो सरकार नहीं हैं. तो सरकार कौन है? वो सरकार हैं कुंवर केश्रीसिंह जी. वही असली सरकार हैं.”
रायसिंह भाई जिन कुंवर केश्रीसिंह का जिक्र कर रहे थे उन्हें गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के जिलों में देवता की तरह पूजा जाता है. उनके नाम के आगे तरह-तरह की उपमाएं लगाई जाती हैं मसलन एंटी क्राइस्ट, फर्स्ट लार्ड ऑफ़ दी ट्रेजरी, ओनर ऑफ़ इंडिया. उनके बारे में उनके अनुयायी बहुत कुछ नहीं बताते सिवाए इसके कि उनके बारे में सभी जानकारी आपको ब्रिटिश हाईकमीशन के इनफॉर्मेशन डिपार्टमेंट से मिल जाएगी
सती-पति ( आदिवासी ) समाज के लोग अपने को असली भारत सरकार का कुटुंब मानते हैं. उनका कहना है कि वो ही इस धरती के असली मालिक हैं. इसके पक्ष में वो लैंड रेवन्यू एक्ट 1921 के पेज नंबर 221 को सन्दर्भ के तौर पर पेश करते हैं. इस संप्रदाय के लोगों के अनुसार अंग्रेजों ने 1870 में उनकी जमीन 99 साल के लिए लीज पर ली थी. यह लीज 4 फरवरी 1969 को खत्म हो गई थी. इसके बाद लीज के इस करार को आगे नहीं बढ़ाया गया. ऐसे में इस देश के आदिवासी जोकि इस जमीन के असल मालिक हैं, उनका इस देश की जमीन पर अपने आप मालिकाना हक़ कायम हो गया. जमीन पर अपने मालिकाना हक़ को साबित करने के लिए रायसिंहभाई का हाथ एक बार फिर से थैली में घुस जाता है. वो अखबार की एक कटिंग निकालते हैं. इस पर जस्टिस काटजू का एक बयान दर्ज है कि 90 फीसदी से ज्यादा भारतीय विदेशी मूल के हैं. रायसिंह भाई कहते हैं-
बहरहाल इन्टरनेट पर जो जानकारी हमें उपलब्ध है उसके हिसाब से कुंवर केश्री सिंह का जन्म गुजरात के तापी जिले के गांव कटास्वान में हुआ. उनकी मां का नाम जमाना और पिता का नाम टेटिया कानजी था. उनके अनुयायी बताते हैं कि उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई पढ़ी थी और बड़ोदा के सयाजीराव गायकवाड़ उनके क्लासमेट थे. यह सूचना गलत है क्योंकि उनके अनुयायियों का दावा है कि केश्रीसिंह ने 1930 में अपनी पढ़ाई खत्म की. उस समय तक सयाजीराव को बड़ौदा पर राज करते हुए 55 साल का वक्त गुज़र चुका था.
16 जुलाई 1997 को आउटलुक मैग्ज़ीन में छपे लेख के अनुसार कुंवर केश्री सिंह की पढ़ाई बीए तक हुई थी. तमाम विरोधाभासी तथ्यों के बावजूद एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि केश्रीसिंह आदिवासियों के एक संप्रदाय ‘सती-पति’ के प्रवर्तक हैं. उनके अनुयायी उन्हें भारत की असली सरकार, भारत के खजाने का मालिक मानते हैं. सती-पति संप्रदाय के लोग किसी भी हिंदू देवी-देवता को नहीं मानते. ये लोग अभिवादन के लिए ‘स्वकर्ता पितु की जय’ का इस्तेमाल करते हैं. पहचान के लिए किसी भी किस्म का सरकारी दस्तावेज़ इन लोगों के पास नहीं है. ये लोग न तो वोट डालते हैं और न ही किसी किस्म की सरकारी योजना का हिस्सा बनते हैं. ये लोग खुद को भारत के किसी भी कानून का हिस्सा नहीं मानते. बस एक आभासी सरकार है जो इन्हें आपस में जोड़े हुए है.
जब रायसिंह भाई से पूछा गया कि वो अपने को किसी भी कानून से अलग क्यों मानते हैं? उनका हाथ एक बार फिर से हरी थैली के भीतर चला गया. उन्होंने एक नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पेपर निकाला और आगे बढ़ा दिया. उनकी जिद्द थी कि इसके हर एक हर्फ़ को पढ़ा जाए. पूरा पढ़े जाने के बाद उन्होंने इसे अपने हाथ में ले लिया और रोशनी के सामने इस अंदाज में फैलाया जैसे कि कोई बहुत बड़ा रहस्य उजागर करने जा रहे हों. नॉन ज्यूडिशियल स्टाम्प पेपर पर रोशनी पड़ते ही एक वॉटरमार्क उभर आया जिसपर भारत सरकार लिखा हुआ था. अब रायसिंह भाई ने इस तथ्य की व्याख्या करनी शुरू की-
“हम लोग उस भारत सरकार को मानते हैं जोकि नॉन ज्यूडिशियल है. नॉन मतलब नहीं अौर ज्यूडिशियल माने कानून. मतलब कि असल भारत सरकार इंसान के बनाए कानून पर नहीं चलती. ऐसे में इंसान के बनाए कोई भी नियम हम पर लागू नहीं होते.”
देखो यह हम नहीं कह रहे. यह आपके बीच का एक आदमी कह रहा है. आदिवासी ही इस जमीन का मूलबीज हैं. वो ही धरती के असली मालिक हैं. बाकी के लोग विदेशी हैं.”
28 अगस्त 2013 को छपी एक खबर इस बात की तस्दीक भी करती है. खबर के मुताबिक मुंबई में 32 साल के एक शख्स कैलाश गुप्ता को गिरफ्तार किया गया था. वो विरार से चर्चगेट जाने वाली लोकल के फर्स्ट क्लास डिब्बे में बिना टिकट के यात्रा कर रहे थे. जब उन्हें पकड़ा गया तो उन्होंने पीले रंग का एक परिचय-पत्र दिखलाया. यह ‘ए/सी भारत सरकार’ का परिचय पत्र था जिस पर कुंवर केश्रीसिंह की तस्वीर छपी हुई थी. आदिवासी समाज से आने वाले कैलाश का कहना था कि वो भारत के असली मालिक हैं और उन्हें टिकट लेने की ज़रूरत नहीं हैं. उनके इसी रवैए के चलते उन्हें कोर्ट में पेश किया गया. यहां उन्हें 1000 का फाइन करने के बाद छोड़ दिया गया. तो भारत आदिवासी लोगों का है या आदिवासी भारत के पहले हकदार हैं ? टेटिया कानजी की इसी कहानी को RRR 2 के makers अपनी फिल्म की कहानी का हिस्सा बना सकते हैं क्योंकि कई बार मानसिक लड़ाई-झगड़े physical लड़ाई-झगड़े से कई ज्यादा मायने रखते हैं. आपका इस बारे मे क्या खयाल है, हमें comments में Jarur बताये. हम फिर मिलेंगे एक नई वीडियो के साथ तब तक खुश रहें और सैफ रहें. Bye
Manisha Jain