Thumbnail title- आज़ाद गुरु ne dilai आज़ादी?
RRRR- Jyoti Arora
भगत सिंह ,जिनको भारत की आज़ादी का गुरु माना जाता है ,ऐसे महान नायक का जन्म 28 सितंबर 1907 को एक सिख परिवार में हुआ था।उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक किसान परिवार से थे। अमृतसर में 13 अप्रैल को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी।साल 1922 जब महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के दौरान 4 फरवरी 1922 को एक गुस्साई भीड़ ने गोरखपुर के चौरी चौरा पुलिस थाने में आग लगा दी थी। इस घटना में पहली बार क्रांतिकारियों के गुस्से का शिकार पुलिस वाले हुए थे। इसमें 23 पुलिस वालों की मौत हो गई थी और चौरी-चौरा हत्याकांड के बाद गाँधी जी ने जब किसानों का साथ नहीं दिया तब भगत सिंह बहुत निराश हुए। उसके बाद उनका अहिंसा से विश्वास कमजोर हो गया और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने का एक मात्र रास्ता है। उसके बाद वह Chandra Shekhar azad के नेतृत्व में गठित हुई गदर दल के हिस्सा बन गए। काकोरी काण्ड ,जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों द्वारा काकोरी कांड की घटना 9 अगस्त 1925 को हुए ब्रिटिश राज के खिलाफ युद्ध में हथियार खरीदने के लिए एक ट्रेन से ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने की थी और Hindustan republican association के केवल दस सदस्यों ने इस घटना को अंजाम दिया था और राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित क्रान्तिकारियों को फाँसी व अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड़ गए और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था।भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 18 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
उस समय भगत सिंह करीब बारह वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ, पर पूरे राष्ट्र की तरह वो भी महात्मा गाँधी का सम्मान करते थे। पर उन्होंने गाँधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह देश की स्वतन्त्रता के लिए हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना शुरू किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व 13 अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने 1928 में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम Hindustan socialist republican association रखा।
एक तरफ़ जहां भगत singh महात्मा गांधी की बातो से प्रभावित थे लेकिन दूसरी तरफ़ वो रक्तपात के favour में नहीं थे लेकिन अपने देश को आज़ाद कराने के लिए कुछ तो करना ज़रूरी था क्योंकि अंगेजों ने जीना हराम कर रखा था और bhagat Singh वामपंथी विचारधारा को मानते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से उनका ताल्लुक था और उन्हीं विचारधारा को वे आगे बढ़ा रहे थे। कलान्तर में उनके विरोधी द्वारा उनको अपने विचारधारा बता कर युवाओ को भगत सिंह के नाम पर बरगलाने के आरोप लगते रहे है। कॉंग्रेस के सत्ता में रहने के बावजूद भगत सिंह को काँग्रेस शहीद का दर्जा नही दिलवा पाए, क्योंकि वे केवल भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए करते थे। उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, इसलिए अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिए कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई थी।आईभगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी ‘आवाज़’ भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने “इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!” का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिए। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।
26 अगस्त, 1930 ,दांडी मार्च को नमक मार्च या दांडी सत्याग्रह के रूप में भी इतिहास में जगह मिली है.।साल 1930 में अंग्रेज सरकार ने जब नमक पर कर लगा दिया तो महात्मा गांधी ने इस कानून के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और उसी साल को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 pages का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सजा सुनाई गई। फाँसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके बाद भगत सिंह की फाँसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फाँसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गाँधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए।
23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई।फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए । कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिए! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।” फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गए। जब गाँव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। और भगत सिंह हमेशा के लिए अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गाँधी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गान्धी काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गाँधी जी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गाँधी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया।
RRRR- JYOTI ARORA
This is a story of our popular and brave superheroes and this kind of story you can see in RRRR because the connectivity in this story are so basic and strong so keep watching and stay tuned .