वह ठीक से चल नहीं पाते थे, ना ही ढंग से सो पाते थे। पिछले 23 सालों से निसार जेल में यही करते रहे थे, 17 दिन पहले उन्हें जयपुर जेल से रिहा कर दिया। बाहर निकलते ही निसारउद्दीन अहमद ने देखा तो उनके बड़े भाई जहीरउद्दीन अहमद उनका इंतजार कर रहे थे। निसार कहते हैं, मैंने अपने पैरों में भारीपन महसूस किया। कुछ पल के लिए मैं भूल ही गया था कि मैं आजाद हूं।
निसार उन तीन लोगों में से एक हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर दिया था। देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें सुनाई गई उम्रकैद की सजा को रद्द किया और 11 मई को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। तीनों को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की पहली बरसी पर हुए ट्रेन बम धमाकों के सिलसिले में उठाया गया था। इन बम धमाकों में दो यात्रियों की मौत हो गई थी और 8 घायल हो गए थे। जब तक तीनों को बरी किया जाता, उनके परिवार उनकी बेगुनाही की लड़ाई लड़ते-लड़ते टूट चुके थे।
निसार कहते हैं, “मैंने अपनी जिंदगी के 8,150 दिन जेल के भीतर बिताए हैं। मेरे लिए जिंदगी खत्म हो चुकी है। जिसे आप देख रहे हैं, वह एक जिंदा लाश है। मैं 20 साल का होने वाला था, जब उन्होंने मुझे जेल में डाल दिया। अब मैं 43 साल का हूं। आखिरी बार जब मैंने अपनी छोटी बहन को देखा था तब वह 12 साल की थी, अब उसकी 12 साल की एक बेटी है। मेरी भांजी तब सिर्फ एक साल की थी, उसकी शादी हो चुकी है। मेरी कजिन मुझसे दो साल छोटी थी, अब वह दादी बन चुकी है। पूरी एक पीढ़ी मेरी जिंदगी से गायब हो चुकी है।
निसार ने जेल से निकलने के बाद आजादी की पहली रात एक होटल में बिताई। वह कहते हैं, “मैं सो नहीं सका। वहां कमरे में एक बिस्तर था। इतने सालों से मैं फर्श पर एक पतला कंबल ओढ़कर सोता आया था। “निसार कहते हैं कि उन्हें 15 जनवरी, 1994 का दिन याद है, जब पुलिस ने उन्हें गुलबर्गा, कर्नाटक स्थित उनके घर से उन्हें उठाया था। वह तब फार्मेसी सेकेंड ईयर में पढ़ते थे। उन्होंने कहा, “15 दिन बाद एक एग्जाम होना था। मैं कॉलेज जा रहा था। पुलिस की गाड़ी इंतजार कर रही थी। एक व्यक्ति ने रिवॉल्वर दिखाई और मुझे जबरन भीतर बिठा लिया। कर्नाटक पुलिस को मेरी गिरफ़्तारी के बारे में कोई खबर ही नहीं थी। यह टीम हैदराबाद से आई थी, वे मुझे हैदराबाद ले गए।”
निसार को 28 फरवरी, 1994 को अदालत के सामने पेश किया गया। जब उनके परिवार को पता चला कि वह कहांं हैं। उनके बड़े भाई जहीरउद्दीन मुंबई में सिविल इंजीनियर थे, उन्हें अप्रैल में उठाया गया। जहीर कहते हैं, “हमारे पिता नूरूउद्दीन अहमद ने हमें बेगुनाह साबित करने की लड़ाई के लिए सबकुछ छोड़ दिया। 2006 में जब उनकी मौत हुई, तब भी उन्हें उम्मीद नहीं थी। अब वहां कुछ भी नहीं बचा। कोई यह कल्पना नहीं कर सकता है कि ऐसे परिवार पर क्या बीती होगी जिसके दो जवान बेटों को जेल में डाल दिया गया हो।” निसार की तरह जहीर को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन स्वास्थ्य के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 9 मई, 2008 को जमानत पर रिहा कर दिया। उन्हें फेफड़ों में कैंसर हो गया था।
उन्होंने अदालत को कई प्रार्थना पत्र लिखे जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें फंसाया गया। आखिरकार अदालत में हम दोनों और दो अन्य को दोषमुक्त करार दिया। कई कानूनी पचड़ों से जेल में रहते हुए जूझने के बाद रिहा हुए निसार कहते हैं, “मैं सुप्रीम कोर्ट का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मेरी आजादी मुझे लौटाई। लेकिन मेरी जिंदगी मुझे कौन लौटाएगा?
जेल मैन्युअल कहता है कि जेल में सिख कैदियों को छोड़कर सभी कैदियों के बाल स्वच्छता और हाइजीन को देखते हुए काटे जाते हैं. इसके लिए जेल में नाई या हेयर कटिंग्स के लिए लोग रहते हैं. वो कैदियों के बालों को काटकर छोटा कर देते हैं. जेल में रहने वाले किसी भी कैदी को लंबे बाल रखने की अनुमति नहीं होती. बस धार्मिक तौर पर सिख ही उससे अलग होते हैं. हिंदू कैदी अगर चाहें तो चोटी रख सकते हैं, क्योंकि धर्म उन्हें चोटी रखने की इजाजत देता है. इसी तरह सभी कैदियों को दाढ़ी रखने की अनुमति नहीं है. उन्हें नियमित तौर पर शेविंग करनी या करानी होती है. केवल मुस्लिम कैदियों को दाढ़ी रखने की अनुमति होती है.
जैसे ही किसी कैदी को वार्ड या बैरक अलाट हो जाती है, उसे उसकी नाप के साफ सुथरे दिए जाते हैं, जिसे उसको पहनना होता है, विचाराधीन और हल्की सजा वाले कैदियों की यूनिफॉर्म कठोर सजा पाए या आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कैदियों से अलग होते हैं. इससे जेल में पता लग जाता है कि कौन सा कैदी किस कैटेगरी का है. हफ्ते में कम से कम एक दिन उसे अपने कपड़ों की सफाई जरूर करनी होती है. हर कैदी को इसके लिए हर महीने साबुन का बार और सर्फ इश्यू किया जाता है. अगर कपड़े फट गए हैं या सिलाई खुल गई है तो रविवार के दिन वो उसे मेंटीनेस में जाकर ठीक करा सकते हैं. जेल में पहनने के लिए उन्हें एक सैंडल भी मिलती है.
कैदी को अपने प्राइवेट कपड़े पहनने होते हैं. जो उसकी लॉकर में रखे होते हैं. कई बार संबंधी इसके अलावा भी अन्य कपड़े उसके लिए लेकर आते हैं, जो वह पहनकर जाता है. हालांकि जेल में वापस आते ही उसे ये कपड़े उतारने होते हैं. जब कैदी की सजा पूरी हो जाती है तो वो जेल के कपड़े वापस कर देता है. कई बार इन कपड़ों को जेल की लांड्री में धोकर दूसरे नए कैदियों के लिए रख लिया जाता है तो कई बार इन्हें डिस्पोज भी कर देते हैं.
सामान्य तौर पर कैदियों को जेल में तीन बार खाने के लिए मिलता है. जेल मैन्युअल के अनुसार सुबह चाय और नाश्ता. करीब 12.30 बजे दोपहर का भोजन और शाम 07.30 बजे रात का भोजन दिया जाता है. पुरुषों को रोजाना 2000 से 2400 कैलोरी का भोजन मिलता है लेकिन अगर कोई भारी काम कर रहा है तो उसका भोजन 2800 कैलोरी तक भी होता है. महिलाओं की रोजाना की खुराक 2400 कैलोरी की होती है लेकिन अगर वो गर्भवती हैं तो उन्हें ज्यादा पौष्टिता वाले अतिरिक्त आहार मिलता है, तब उनकी रोज की कैलोरी 3100 तक हो सकती है.
सामान्य तौर पर कैदियों को जेल में तीन बार खाने के लिए मिलता है. जेल मैन्युअल के अनुसार सुबह चाय और नाश्ता. करीब 12.30 बजे दोपहर का भोजन और शाम 07.30 बजे रात का भोजन दिया जाता है. पुरुषों को रोजाना 2000 से 2400 कैलोरी का भोजन मिलता है लेकिन अगर कोई भारी काम कर रहा है तो उसका भोजन 2800 कैलोरी तक भी होता है. महिलाओं की रोजाना की खुराक 2400 कैलोरी की होती है लेकिन अगर वो गर्भवती हैं तो उन्हें ज्यादा पौष्टिता वाले अतिरिक्त आहार मिलता है, तब उनकी रोज की कैलोरी 3100 तक हो सकती है.
जेल में एक सरकारी कैंटीन होती है. इस कैंटीन पर रोज के इस्तेमाल के सामान मिलते हैं. यहां से कैदी साबुन, टूथपेस्ट, इनरवियर्स जैसे कुछ अपनी जरूरत के सामान आदि खरीद सकते हैं. ऐसे में, इन समानों की खरीदारी करने के लिए कूपन का इस्तेमाल किया जाता है. लखनऊ जेल और तिहाड़ में रह चुका एक शख्स बताता हैं कि ये कूपन एक तरह से जेल के पैसे होते हैं. इनसे वहां की कैंटीन से समाना खरीदा जा सकता है. इन कूपन को हासिल करने के दो तरीके होते हैं. पहला ये कि कैदी के घर वाले जेल में पैसे जमा करवा कर उसे कूपन उपलब्ध करवाएं. उदाहरण के लिए मान लीजिए कैदी के घर वालों ने जेल वालों को 500 रुपये दिए तो कैदी को उतने ही मूल्य के कूपन मिल जाएंगे. फिर वह कैंटीन से सामान खरीद सकता. इसके अलावा कैदी जब जेल में काम करते हैं जेल की ओर काम के बदले उनको मेहनताना दिया जाता है. उनके इस मेहनताना को भी कूपन के रूप में दिया जाता है. अगर कोई इन कूपन का इस्तेमाल नहीं करता है तो कैदियों के हिस्से में ये कूपन जमा होते रहते हैं. जब कैदी जेल से बाहर निकलते हैं तो वे कूपन जमा करवाने के बाद इसके बदले पैसे ले सकते हैं. इस आधार कर कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार से जेल की करेंसी होती है, जो सिर्फ जेल की चारदीवारी के अंदर ही इस्तेमाल की जा सकती है
मुर्गे की बांग पर जगने-जगाने का दौर भले पीछे छूट गया लेकिन आज भी अधिकांश जेलों में बंदियों को वक्त और जिम्मेदारी का एहसास घंटे की गूंज पर ही होता है। हर साठ मिनट बाद बजने वाले घंटे उन्हें समय बताते हैं तो ‘पचासा’ की एकमुश्त गूंज उन्हें उनकी जिम्मेदारी बताती है। सुबह से शाम तक चार बार पचासा गूंजती है, जिनका हर बार उद्देश्य अलग-अलग होता है। कैदियों की दिनचर्या तय करने वाली पहली पचासा सुबह पांच बजे गूंजती है। इसका उद्देश्य कैदियों को जगाकर नित्य क्रिया से फारिग होकर सात बजे प्रार्थना सभा में एकत्रित करने की सूचना देना है। यहीं से बंदियों को काम पर भेजा जाता है।
दूसरी पचासा दिन में 11 बजे गूंजती है जिसका मतलब कैदियों को काम से वापस लौटकर खाना बंटने वाली जगह पर पहुंचना है। दोपहर में एक बजे तीसरी पचासा कैदियों को अपने हिस्से का काम तेज करने का इशारा देती है। चौथी और अंतिम पचासा शाम को पांच बजे गूंजती है जिसका मतलब है कि हर कैदी और बंदी काम छोड़कर वापस बैरक के करीब आ जाएं। रात का खाना लेकर बैरक में वापस हो जाएं। हर पचासा के साथ जेल कर्मचारी कैदियों-बंदियों की गिनती करते हैं।
शाम पांच बजे की अंतिम पचासा बजने तक जेल को जिनके रिहाई का आदेश मिल चुका होता है, उनकी ही रिहाई उस दिन संभव हो पाती है। अंतिम पचासा यानी शाम पांच बजे के बाद आए रिहाई आदेश वाले कैदी अगले दिन जेल से बाहर आ पाते हैं। जेल में किसी भी तरह का खतरा होने पर जेल का घंटा बेतुके ढंग से बजाया जाता है। घंटे की गूंज ही खतरे या आपातकाल का एहसास कराने लगती है। इसका मतलब बंदी रक्षक से लेकर जेल के आला अफसर तक को खतरे से मुकाबले के लिए अलर्ट करना है।
कैदी भागने या इस तरह की कोशिश करने, जेल में संघर्ष होने या कोई हादसा हो जाने पर खतरे की घंटी के तौर पर इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस दौरान कैदियों-बंदियों को प्रार्थना सभा वाले ग्राउंड में पहुंचकर सावधान मुद्रा में खड़ा होना होता है। बस्ती जिला कारागार के जेलर वीके मिश्रा ने बताया कि जेल में हर घंटे पर समय बताने के लिए घंटे बजना और सुबह पांच से शाम पांच बजे तक चार बार पचासा का इस्तेमाल होना, जेल की स्थापना के वक्त से तय है। पचासा से कैदियों ही नहीं बंदी रक्षकों की भूमिका भी तय होती है।
सुबह-ए-बनारस और बनारसी साड़ी तो दुनिया भर में मशहूर है, पर कम लोग ही जानते हैं कि अंगरेजों के जमाने से जेलों का निजाम बनारसी घंटा से ही चलता है। बनारस के बने घंटे ही उत्तर प्रदेश की सभी जेलों में टंगे हैं जिनके पचासा से कैदियों की दिनचर्या तय होती है। अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही यह प्रथा जेलों में आज भी कायम है। करीब दस किलो वजन का घंटा जेलों की पहचान बन चुका है। निर्धारित समय के अलावा आकस्मिक रूप से दिन और रात में किसी समय जेल का घंटा घनघनाने पर अनहोनी का सूचक है जिसे पगली घंटी कहते हैं।