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18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदर अली का देहावसान एवं टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है। अपने पिता हैदर अली के पश्चात 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठा। मशहूर इतिहासकार colonel mark लिखते हैं कि “Tipu sultan अपने पिता Haidar Ali से कद में छोटे थे। उनकी त्वचा का रंग काला था। उनकी आंखें बड़ी बड़ी थीं। वो साधारण और बिना वजन की पोशाक पहनते थे और अपने हाली- मवालियों से भी ऐसा करने की उम्मीद रखते थे। उनको अक्सर घोड़े पर सवार देखा जाता था। वो घुड़सवारी को एक बहुत बड़ी कला मानते थे और उसमें उन्हें महारत भी हासिल थी। उन्हें पालकी पर चलना सख्त नापसंद था।’ टीपू सुल्तान की शख्सियत की एक झलक ब्रिटिश लाइब्रेरी में रखी एक किताब “An account of Tipu sultan court” में भी मिलती है, जिसे उनके मुंशी मोहम्मद कासिम ने उनकी मौत के बाद एक अंग्रेज इतिहासकार को दिया था। ‘टीपू मझोले कद के थे। उनका माथा चौड़ा था। वो सिलेटी आंखों, ऊंची नाक और पतली कमर के मालिक थे। उनकी मूछें छोटी थीं और दाढ़ी पूरी तरह से कटी हुई थी।’

      

14 फरवरी 1799 जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मैसूर साम्राज्य के बीच चौथा आंग्लो-मैसूर युद्ध का अंतिम टकराव था ,उस समय को जनरल george harris के नेतृत्व में 21000 सैनिकों ने वैल्लोर से मैसूर की तरफ कूच किया। 20 मार्च को अंबर के पास कर्नल वेलेज्ली के नेतृत्व में 16000 सैनिकों का दल इस सेना में आ मिला था। इसमें कन्नौर के पास जनरल स्टुअर्ट की कमान में 6420 सैनिकों का जत्था भी शामिल हो गया था। इन सबने मिलकर टीपू सुल्तान के सेरिंगापटम पर चढ़ाई कर दी थी।’ये वही टीपू सुल्तान थे जिनके आधे साम्राज्य पर छह साल पहले अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था। उनके पास जो जमीन बची थी उससे उन्हें सालाना एक करोड़ रुपये से थोड़ा अधिक राजस्व मिलता था जबकि उस समय भारत में अंग्रेजों का कुल राजस्व 90 लाख पाउंड स्टर्लिंग यानि नौ करोड़ रुपये था। धीरे-धीरे उन्होंने सेरिंगापटम के किले पर घेरा डाला और 3 मई 1799 को तोपों से गोलाबारी कर उसकी प्राचीर में एक छेद कर दिया।’हालांकि छेद इतना बड़ा नहीं था लेकिन तब भी जॉर्ज हैरिस ने उसके अंदर अपने सैनिक भेजने का फैसला किया। असल में उनके पास कोई विकल्प नहीं था। उनकी रसद खत्म हो चुकी थी और उनकी सेना करीब-करीब भुखमरी के कगार पर थी। बाद में हैरिस ने कैप्टेन माल्कम से खुद स्वीकार किया कि मेरे तंबू पर तैनात अंग्रेज संतरी खाने की कमी और थकान से इतना कमजोर हो चुका था कि अगर आप उसे जरा से धक्का दें तो वो नीचे गिर जाए।’ तीन मई की रात करीब 5000 सैनिक जिसमें करीब 3000 अंग्रेज थे, खाइयों में छिप गए, ताकि टीपू के सैनिकों को उनकी गतिविधि के बारे में पता न चल सके। जैसे ही हमले का समय करीब आया, टीपू सुल्तान से दगा करने वाले मीर सादिक ने टीपू के सैनिकों को तनख्वाह देने के बहाने पीछे बुला लिया। एक और इतिहासकार मीर hussain ali khan kirmani अपनी किताब “history of tipu sultan” में कर्नल मार्क विल्क्स के हवाले से लिखते हैं, ‘टीपू के एक कमांडर नदीम ने वेतन का मुद्दा उठा दिया था, इसलिए प्राचीर के छेद के पास तैनात टीपू के सैनिक उस समय पीछे चले गए थे जब अंग्रेजों ने हमला बोला था।

 

 इस बीच टीपू के एक बहुत वफादार कमांडर सईद gaffar अंग्रेंजों की तोप के गोले से मार दिए गए और ही गफ्फार की मौत हुई, किले से गद्दार सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ सफेद रुमाल हिलाने शुरू कर दिए। ये पहले से तय था कि जब ऐसा किया जाएगा तो अंग्रेज सैनिक किले पर हमला बोल देंगे। जैसे ही ये सिग्नल मिला, अंग्रेज सैनिकों ने नदी के किनारे की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया जो वहां से सिर्फ 100 गज दूर था।नदी भी करीब 280 गज चौड़ी थी, जिसमें कहीं टखने तक पानी था तो कहीं कमर तक। Major एलेक्जेंडर एलन अपनी किताब ‘एन अकाउंट ऑफ द कैमपेन इन मैसूर’ में लिखते हैं, ‘हालांकि किले से अंग्रेजों के बढ़ते हुए सैनिकों को आसानी से तोपों का निशाना बनाया जा सकता था, लेकिन तब भी खाइयों से निकल कर कुछ सैनिकों ने मात्र सात मिनटों के अंदर किले की प्राचीर के तोप से हुए छेद पर ब्रिटिश झंडा फहरा दिया।मैसूर में एक कहावत है कि हैदर साम्राज्य स्थापित करने के लिए पैदा हुए थे और टीपू उसे खोने के लिए क्योंकि 

अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान की मौत हो गई।

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